Friday, December 7, 2012

परजातंतर




यह फोटो आज सुबह ही ऑफिस जाते वक्त मोबाइल से लिया जिसमें पीछे की दीवार पर वही अलबेली बातें लिखी हैं कि अरबों का घोटाला हुआ, इतने का उतना हुआ और रास्ते के ठीक दूसरे सिरे पर एक शख्स सो रहा है। वहीं दीवार की ओर ही थोड़ा ध्यान से देखेंगे तो तस्वीर के एक हिस्से में तेज उजाला भी पड़ रहा है जिसमें से किसी नेता का पोस्टर पर बना मुस्कराता चेहरा सड़क पर सोये शख्स को देख रहा है। वस्तुत: यही हो भी रहा है।


Wednesday, August 8, 2012

पिचकी ट्यूब



बचपन में कभी साईकिल की पिचकी ट्यूब को कांधे पर रख हम भी फूले न समाते थे.....उस वक्त सारी कायनात उस पिचकी ट्यूब में समाई लगती थी :)

( ये पिछले साल ली गईं तस्वीरों में से है :)

Friday, July 27, 2012

Random Thoughts

चित्र: सतीश यादव


 हम सभी अपने अपने जीवन के कई-कई खूंटों से बंधे हैं,  कभी कोई खूंटा नौकरी के रूप में है तो कोई खूंटा भार्या के रूप में, कभी पति के रूप में तो कभी बच्चों के रूप में, तो कभी अन्य परिजनों के रूप में हम सभी के जीवन में खूंटा कहीं न कहीं बना ही रहता है और यह जरूरी भी है।
    यहीं देख लिजिए -  पशु और मनुष्य के भेद को यदि थोड़ी देर के लिये भुला दिया जाय तो सोचा जा सकता है कि यदि वह खूंटा न होता तो उसके पास पड़े झौवे में भोजन के लिये रखा चारा भी न होता,  और न ही वह फूस की बनी मड़ैयारूपी आश्रय स्थल होता  जिसमें दिन भर खटने के बाद विश्रांति हेतु खाट बिछी है।
   हां, एक लकड़ी की चौकी भी है जिसे यदि अतिरिक्त सुविधा की बजाय सामाजिक रिश्तों, बैठकों, विचार-विनिमय के ठिये के रूप में देखा जाय तो  खूंटा, खाद्य, आश्रय स्थली, और सामाजिक सरोकारों से जुड़ी एक मुकम्मल तस्वीर सी उभरती है।
- सतीश 

Sunday, July 8, 2012

चिल्ल मार डीजे....




    पिछले कुछ सालों से शादीयों में मनोरंजन का भार डीजे पर आ गया है, डीजे वालों की चांदी तो होती है लेकिन कभी कभार मुश्किल भी आ खड़ी होती है जब एक पक्ष कहता है कि गाना अश्लील है औ दूजा कहता है चलने दिया जाय...शादी बियाह के टैम कलकान ठीक नहीं....लौंडा लपाड़ी हैं थोड़ा तो चलता ही है........इसी चलता है के आलोक में एक और खेल चल रहा होता है जब डीजे के पीछे पीछे चल रही भीड़ खत्म होने पर चपटी खोली जाती है, कभी देसी कभी विदेशी....हां एक और कहते हैं...महाठंडी बियर जो अक्सर ड्राईवर के जिम्मे होती है कि रखो, मांगें तबइ देना ....औ देखो..चच्चा तक खबर न जाय....लेकिन खबर कैसे न जायगी...चच्चा खुद अपना कोटा वहीं से लेकर निकलते हैं.....और डराईबर एक 'कहंरवा' गाना बजा देता है.....ई डराईबर निमहुरा नरम परेला....हई खलसीया बेटहना गरम परेला....तब क्या चच्चा और क्या बेटहना...झूमकत आवेली बरतीया ऐ तनि देख बलमू हो.....टेहकत आवतीया बरतीया...तनि देख बलमू.... 

 लेकिन बलमू लोगों को देखने का होश रहे तब न.....वे तो मस्त हैं महाठंडी बीयर से  :- )

Friday, July 6, 2012

महिला.... मथनी.... मेटी....मट्ठा



   गाँव-गाँव की  मेरी घुमक्कड़ी के दौरान ली गई एक तस्वीर जिसमें एक महिला मथनी से मेटी में  मट्ठा तैयार कर रही है। जिस वक्त मट्ठा मथा जा रहा था उस समय उसका बेटा बगल में इस उम्मीद से खड़ा था कि मट्ठा मथने से जो उपरी सतह पर 'नैनू' (मक्खन) उतरायेगा तो वह खाने मिलेगा। जबकि उसकी माता इस फेर में थी कि थोड़ा सा चख भर ले, बाकि जो बचे वह उपलों की आग पर रख खर करते हुए घी बनाये....लेकिन बच्चा डटा था कि मुझे और 'नैनू' चाहिये  :-)


समय - माठा 'पियउवल' का

स्थान - ऊपी का  एक गाँव 

Sunday, May 13, 2012



नौटंकी स्टेज के पीछे - 'सिन्गारखोली' ( Changing Room ) का भीतरी दृश्य ....

जिस समय तस्वीर खेंची गई थी उसके थोड़ी देर पहले ही पीली साड़ी पहने लौन्डे ने स्टेज पर पार्ट खेलने के दौरान डाकू के सामने कबीर का दोहा पढ़ा था - कांकर पाथर जोरि के महजिद ली चुनाय....तापर चढ़ि के मुल्ला चिल्लाय का बहरा हुआ खुदाय......


Sunday, April 15, 2012

गाँव का 'बिसाती'


बिसाती आ रहा है.......अबकी बड़े दिन बाद दिखे बंधु !


ठहरो 'यार'.....




2006 में हिट हुई फिल्म 'फना' के नाम की टिकुली भी है....एक टिकली के  पत्ते पर नाम लिखा है - 'हमार निरहु'




'बाकस' तो दुई-दुई लिये हो 'आर'.....



इतना हेयर-पिन ?


नथुनी, बाला, पिन.....



तनिक ठाड़ रहो तो....एक ठो फोटू हेंचना है.......




चलो बाय- बाय.....
      नवंबर 2006 में ली गई मेरे गाँव के बिसाती की तस्वीरें। इनके पास महिलाओं से सम्बन्धित सेन्हुर, टिकुली, आलता, काजल,लाली,पावडर अगड़म-बगड़म तमाम टीम-टाम जो महिलाओं से सम्बन्धित होते हैं वे ही मिलते हैं।
   
    इनके 'बाकस'  में बच्चों के लिये कुछ खिलौने भी होते हैं क्योंकि जब महिलायें इनसे सामान खरीद रही होती हैं तो छोटे बच्चों का करीब होना लाजिमी है। ऐसे में बिसाती उनके लिये भी कुछ न कुछ लिये रहता है। बिसाती से सम्बन्धित कई लोकगीत भी हैं जिनमें परदेश में रहने वाले पति से पत्नी फरियाद करती है कि उसके पास बिसाती को देने के लिये पैसे भी नहीं हैं, कुछ कमा कर भेजो।

       बदलते समय में अब बिसाती कम होने लगे हैं।  महिलायें अब बाजार में खरीददारी के लिये घर से निकलने लगी हैं। बाजार उन्हें विवधताओं से भरे गार्नियर और लैक्मे प्रॉडक्ट उपलब्ध करवा रहा है।  ऐसे में गाँव-गाँव घूम कर केवल महिलाओं के लिये उपयोगी वस्तुओं की बिक्री करने वाले बिसाती आने वाले समय में लुप्त हो जांय तो कोई आश्चर्य नहीं।


Saturday, April 14, 2012

गँवईं शॉपिंग इन दुपहरीया

दुपहरीया बाजार

     गाँवों में अक्सर कुछ महिलायें दोपहर के समय ही बाजार की ओर निकलती हैं क्योंकि दोपहर के वक्त उन्हें दुकानों में ज्यादा भीड़-भाड़ का सामना नहीं करना पड़ता। बड़े-बुजुर्गों से घूंघट-आड़ आदि के झंझट से मुक्ति रहती है और सबसे बढ़कर सुनार के यहां जाने का यही सबसे मुफीद वक्त होता है क्योंकि घर के पुरूष  या तो कहीं बाहर गये होते हैं या दुपहरीया में सो रहे होते हैं । अक्सर पतियों के सामने गहने आदि लेने की बातें महिलायें छुपा जाती हैं या कम बताती हैं क्योंकि अक्सर यही होता है कि भले महिलायें कतर-ब्योंत कर अपने बचाये पैसों से  हल्के फुल्के गहने खरीदें लेकिन पति हमेशा नाराज ही रहते हैं कि क्या करोगी इतना बनवा कर। अब पति क्या जानें कि महिलायें सिर्फ अपना नहीं सोचतीं बल्कि अपनी बेटियों के लिये भी श्नै-श्नै  इंतजाम करती जाती हैं वरना बेटी के बड़ी होने पर कहां से इकट्ठा लायेंगे गहना-गुरिया।

    ऐसी ही एक दुपहरीया का दृश्य है जब महिलायें बाजार की ओर जा रही हैं। बहुत संभव है पहला ठिकाना बिसाती हो जो महिलाओं के लिये टिकुली, सेन्हुर, कजरौटा बेचने का एकमात्र ठिकाना होता है और जहां महिलायें बिसाती से मोलभाव करके अंतत: अपने मन की चीजें ले ही लेती हैं।

    - सतीश पंचम

 

Wednesday, April 4, 2012

देशज दुकनिया




देशज दुकनिया
    जौनपुर के शाही पुल के पास स्थित एक घरेलू लकड़ी के साजो-सामानों से सजी दुकान। आँवले का मुरब्बा बनाते समय आँवले में छेद करने हेतु छेदनी हो या बेलन, अथवा छौंक बघार वाले कलछुल, सभी कुछ ध्यान खेंचते हैं। मूसल जो अब केवल प्रतीकात्मक रूप से ही विवाह के दौरान मंडप में इस्तेमाल होते हैं, वे भी बहुतायत में दिख रहे हैं। उन्हीं सामानों के बीच एक्वाफिना की पानी की बोतल भी रखी है....

और हां, हुक्कों के बगल में शंकर भगवान भी हैं।

- सतीश पंचम 

Friday, February 24, 2012

बीच बजरिया...


   बीच बाजार पैदल चल रहे किशोर के पैरों में चोट लगी है, नंगे पैर खडंजा सड़क पर चल रहा है और उधर उसके हाथ में जो बच्चा है, जिसे बाजार में पैदल नहीं चलना उसके पैरों में झक्क सफेद जूते हैं।

   कई बार जीवन भी इसी विपर्यय की तरह ही सरे बाजार गुजरता हुआ दिखता है। वो विपर्यय जो आवश्यक है, जो एक घनघोर सत्य है।

     कल्पना करें कि हाथ में पकड़ा हुआ बच्चा हम ही  हैं। वह किशोर जो बच्चा हाथ में लिये चोटिल कदमों से नंगे पैर सरे बाजार चल रहा है... हमारे  माता-पिता का ही रूप है। तब ?  ऐसे ही समय हमारी समस्त चेतनायें इस दृश्य को अपने से जोड़ने लगती हैं, अपने बचपन, अपनी जवानी, अपने बुढ़ापे का वह क्रम याद सा हो आता है कि कभी हम भी गोद में थे लेकिन जूते पहनते थे। कभी हमारी भी गोद में कोई बच्चा था लेकिन हम अब भूमिका बदल चोटिल पैरों वाला अभिभावक बन गये हैं और जीवनरूपी बाजार से गुजरते जा रहे हैं....चले जा रहे हैं।

 इस दृश्य को देख मुझसे रहा न गया और गाँव की बाजार में एक दुकान की ओट लेते हुए कैमरा क्लिक कर दिया :)

- सतीश पंचम

Tuesday, February 14, 2012

बाँस बहादुर


बाँस को आधिकारिक तौर पर घास की प्रजाति माना जाता है,  कहीं से घास लग तो नहीं रहा  :)
 Photo : Satish Pancham

Monday, February 13, 2012

'छन' भर भेंट

 'छन' (क्षण)  भर भेंट

कुछ दवाई-दरपन
कुछ हारी-बीमारी
बिटिया की बिदाई
कुछ चूड़ी पहनवाई
कुछ रगरा-झगरा
कुछ मरद के कमाई
तनिक सासु क बुराई
तनिक ननद क लगाई

छन भर क भेंट सखी
अउर केतना बताईं

- सतीश पंचम

Sunday, February 12, 2012