Saturday, April 14, 2012

गँवईं शॉपिंग इन दुपहरीया

दुपहरीया बाजार

     गाँवों में अक्सर कुछ महिलायें दोपहर के समय ही बाजार की ओर निकलती हैं क्योंकि दोपहर के वक्त उन्हें दुकानों में ज्यादा भीड़-भाड़ का सामना नहीं करना पड़ता। बड़े-बुजुर्गों से घूंघट-आड़ आदि के झंझट से मुक्ति रहती है और सबसे बढ़कर सुनार के यहां जाने का यही सबसे मुफीद वक्त होता है क्योंकि घर के पुरूष  या तो कहीं बाहर गये होते हैं या दुपहरीया में सो रहे होते हैं । अक्सर पतियों के सामने गहने आदि लेने की बातें महिलायें छुपा जाती हैं या कम बताती हैं क्योंकि अक्सर यही होता है कि भले महिलायें कतर-ब्योंत कर अपने बचाये पैसों से  हल्के फुल्के गहने खरीदें लेकिन पति हमेशा नाराज ही रहते हैं कि क्या करोगी इतना बनवा कर। अब पति क्या जानें कि महिलायें सिर्फ अपना नहीं सोचतीं बल्कि अपनी बेटियों के लिये भी श्नै-श्नै  इंतजाम करती जाती हैं वरना बेटी के बड़ी होने पर कहां से इकट्ठा लायेंगे गहना-गुरिया।

    ऐसी ही एक दुपहरीया का दृश्य है जब महिलायें बाजार की ओर जा रही हैं। बहुत संभव है पहला ठिकाना बिसाती हो जो महिलाओं के लिये टिकुली, सेन्हुर, कजरौटा बेचने का एकमात्र ठिकाना होता है और जहां महिलायें बिसाती से मोलभाव करके अंतत: अपने मन की चीजें ले ही लेती हैं।

    - सतीश पंचम

 

9 comments:

  1. गाँव के बिसाती की दुकान पर गहने गढ़वाती महिलओं की फोटो भी हो जाती तो बढ़िया होता

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  2. रश्मि जी, महिलायें गहने सुनार के यहां गढ़वाती हैं बिसाती के यहां नहीं :)

    बिसाती केवल महिलाओं के रोजमर्रा के छोटे-मोटे सामान ही बेचता है मसलन, माथे की टिकली, सिन्दुर, काजल, लाली, पावडर, चूड़ी आदि। जो हल्के फुल्के नकली झुमके, प्लास्टिक की चूड़ीयां या हार आदि वह बेचता भी है तो बीस-पच्चीस रूपये से ज्यादा की कीमत नहीं होती। और हां, बिसाती भी दो किस्म के होते हैं - एक जो गाँव-गाँव घूमता है औऱ दूसरा वो जो केवल हाट बाजार में दुकान लगाता है।
    और हां, बिसाती के पास सामान खरीदती महिलाओं के पास किसी पुरूष का मौजूद होना अच्छा नहीं माना जाता क्योंकि महिलायें सामान लेने में सकुचा जाती हैं। ऐसे में फोटो खेंचना जरा मुश्किल है :)

    हां, श्रीमती जी को कैमरा दे दूंगा अबकी, वे ही खेंच लायेंगी :)

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    1. ऐसा नहीं है कि पुरुषों की उपस्थिति नगण्य होती हैं। हमने तो महिलाओं के समूहों के साथ-साथ पुरुषों को भी वहाँ ख़रीदारी करते देखा है। मेरे कैमरे में ऐसी कई तस्वीरें हैं। कभी मौका लगा तो अपने यहाँ लगाऊँगा।

      फ़िर हमने मैसूर में ऐसे कई पटहरों को देखा जो गहने भी गूथते है, हमारी मौसी के यहाँ बलरामपुर में भी ऐसी कई लोग हैं।

      और जो आप कह रहे हैं बिसाती दो किस्म के होते हैं, तो बता दूँ कि आमतौर पर जब बड़े मेले नहीं होते और खाली होते हैं और वक़्त खूब होता है तो हमारे चाचा- फूफ़ा ऐसे ही साइकिल उठाकर किसी गाँव चल पड़ते हैं।

      आप ही सोचिए इन दो क़िस्मों में दो अलग-अलग वर्गीकृत बिसाती/ पटहर कहाँ से आएंगे? यह कोई मुनाफ़े वाला पेशा तो है नहीं कि वे घर फूँक कर इन मौकों को छोड़ देंगे।

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  3. पेड़ के पीछे छुप के खींची है क्या महराज !

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    1. नहीं, छुपकर नहीं, खुलेआम खेंची है, हां थोड़ा सा सराऊंड कैप्चर करना था सो बाँस के झुरमुटों की ओट ली थी :)

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  4. ओह! गलती हो गयी..बिसाती नहीं सुनार के यहाँ गहने गढ़वाये जाते हैं...पर बिसाती के यहाँ... टिकली, सिन्दुर, काजल, लाली, पावडर, चूड़ी हल्के फुल्के नकली झुमके, प्लास्टिक की चूड़ीयां ,हार.. ये सब बिकते हैं...ये सब आपको कैसे पता ??

    बोलिए...बोलिए...कभी खरीदा था क्या??...किसी को या फिर भाभी जी को ही गिफ्ट करने के लिए :):)

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    1. अरे नहीं, कभी किसी को गिफ्ट करने के लिये बिसाती से कोई चीज नहीं खरीदा लेकिन जानता हूं :-)

      राह चलते बिसाती को कभी देखियेगा तो समझ जाएंगी। उसके द्वारा बेचने वाली चीजें हमेशा खुले में रहती हैं। एक बॉक्स होता है जिसके उपर कांच की शीट रहती है जिससे पता चलता है कि बंदा क्या-क्या लेकर चलता है। शायद मेरे कलेक्शन में एक बिसाती की तस्वीर भी है। अगली पोस्ट में बिसाती की तस्वीर भी लगा दूंगा :)

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  5. अच्छा फोटो खैंचा! :)

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