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बिसाती आ रहा है.......अबकी बड़े दिन बाद दिखे बंधु ! |
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ठहरो 'यार'..... |
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2006 में हिट हुई फिल्म 'फना' के नाम की टिकुली भी है....एक टिकली के पत्ते पर नाम लिखा है - 'हमार निरहु' |
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'बाकस' तो दुई-दुई लिये हो 'आर'..... |
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इतना हेयर-पिन ?
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नथुनी, बाला, पिन..... |
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तनिक ठाड़ रहो तो....एक ठो फोटू हेंचना है....... |
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चलो बाय- बाय..... |
नवंबर 2006 में ली गई मेरे गाँव के बिसाती की तस्वीरें। इनके पास महिलाओं से सम्बन्धित सेन्हुर, टिकुली, आलता, काजल,लाली,पावडर अगड़म-बगड़म तमाम टीम-टाम जो महिलाओं से सम्बन्धित होते हैं वे ही मिलते हैं।
इनके 'बाकस' में बच्चों के लिये कुछ खिलौने भी होते हैं क्योंकि जब महिलायें इनसे सामान खरीद रही होती हैं तो छोटे बच्चों का करीब होना लाजिमी है। ऐसे में बिसाती उनके लिये भी कुछ न कुछ लिये रहता है। बिसाती से सम्बन्धित कई लोकगीत भी हैं जिनमें परदेश में रहने वाले पति से पत्नी फरियाद करती है कि उसके पास बिसाती को देने के लिये पैसे भी नहीं हैं, कुछ कमा कर भेजो।
बदलते समय में अब बिसाती कम होने लगे हैं। महिलायें अब बाजार में खरीददारी के लिये घर से निकलने लगी हैं। बाजार उन्हें विवधताओं से भरे गार्नियर और लैक्मे प्रॉडक्ट उपलब्ध करवा रहा है। ऐसे में गाँव-गाँव घूम कर केवल महिलाओं के लिये उपयोगी वस्तुओं की बिक्री करने वाले बिसाती आने वाले समय में लुप्त हो जांय तो कोई आश्चर्य नहीं।
:)
ReplyDeleteगाँव की डगर पर एक सफ़र ...
ReplyDeleteअभी ध्यान से देखा बिसाती के पास कांच लगे शोकेस में 2006 में हिट हुई फिल्म 'फना' के नाम की टिकुली भी है....एक टिकली के पत्ते पर नाम लिखा है - 'हमार निरहु' :-)
ReplyDeleteबड़ा स्मार्ट बिसाती है। फोटो देखकर अच्छा लगा। :)
ReplyDeleteहम्म तो बिसाती की फोटू लगा दी..थैंक्यू है जी..
ReplyDeleteकल जौनपुर की एक सहेली के पति बता रहे थे कि उनके गाँव में इसे बिसारती कहते हैं...
सहेली ने आगे जोड़ा...'शायद ये गाँव गाँव विचरते हैं इसलिए इन्हें विसारती (विचरती का अपभ्रंश) कहा जाता है.
वैसे बिसाती शब्द कैसे बना होगा??..कुछ अंदाजा ??
रश्मि जी,
ReplyDeleteबिसाती के इतिहास का पता नहीं। अपने लिये तो बिसाती, बिसारती सब एक बराबर :-)
यह बिसाती जाति से 'पटवा' होते हैं। इनका 'बिसातखाना' होता है, जिसे हम लोग अपने यहाँ ढाबली कहते हैं। मुझसे कई साल छोटे सुरेस चाचा भी ऐसे ही बिसाती हैं। साइकिल पर गाँव गाँव घूमते हैं और वही मेलों-हाटों में दुकाने भी लगाते हैं। मामा अब पता नहीं कहाँ होंगे?
Deleteइधर मैं भी कोशिश कर रहा हूँ, थोड़ा बहुत जो बचपन से देखा सुना है उसे लिख दिया जाये। कहीं कोई इन दिनों के बीत जाने के बाद यहाँ या वहाँ उन पन्नों पर लौटेंगे, तब शायद मैं भी वहाँ न होऊँ..
http://karnichaparkaran.blogspot.in/2015/01/blog-post.html
अच्छा किया विलुप्त होने से पहले बिसाती को सहेज लिया।:)
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