Friday, July 27, 2012

Random Thoughts

चित्र: सतीश यादव


 हम सभी अपने अपने जीवन के कई-कई खूंटों से बंधे हैं,  कभी कोई खूंटा नौकरी के रूप में है तो कोई खूंटा भार्या के रूप में, कभी पति के रूप में तो कभी बच्चों के रूप में, तो कभी अन्य परिजनों के रूप में हम सभी के जीवन में खूंटा कहीं न कहीं बना ही रहता है और यह जरूरी भी है।
    यहीं देख लिजिए -  पशु और मनुष्य के भेद को यदि थोड़ी देर के लिये भुला दिया जाय तो सोचा जा सकता है कि यदि वह खूंटा न होता तो उसके पास पड़े झौवे में भोजन के लिये रखा चारा भी न होता,  और न ही वह फूस की बनी मड़ैयारूपी आश्रय स्थल होता  जिसमें दिन भर खटने के बाद विश्रांति हेतु खाट बिछी है।
   हां, एक लकड़ी की चौकी भी है जिसे यदि अतिरिक्त सुविधा की बजाय सामाजिक रिश्तों, बैठकों, विचार-विनिमय के ठिये के रूप में देखा जाय तो  खूंटा, खाद्य, आश्रय स्थली, और सामाजिक सरोकारों से जुड़ी एक मुकम्मल तस्वीर सी उभरती है।
- सतीश 

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